वैचारिक विश्वसनीयता से ही बढ़ेगी साख

 


राजकुमार सिंह –

उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में 40 प्रतिशत टिकट महिलाओं को देने के प्रियंका गांधी वाड्रा के ऐलान को गेम चेंजर मानने वाले कांग्रेसियों की कमी नहीं। जब देश में जुमलों-शिगूफों के जरिये चुनाव जीते भी जाते रहे हों, तब ऐसा उत्साह अस्वाभाविक भी नहीं कहा जा सकता। कुछ लोगों को प्रियंका के ऐलान को शिगूफा या जुमला कहने पर एतराज हो सकता है, लेकिन यह उसके अलावा कुछ और नहीं, यह उनकी अपनी ही इस टिप्पणी से स्पष्ट हो जाता है कि उत्तर प्रदेश के अलावा अन्य राज्यों में ऐसा करने का कांग्रेस का कोई इरादा नहीं है। अगर कांग्रेस वाकई चुनावी टिकटों के जरिये महिला सशक्तीकरण के प्रति प्रतिबद्ध है तो फिर अन्य राज्यों में ऐसा करने पर मौन क्यों? प्रियंका का तर्क है कि वह तो सिर्फ उत्तर प्रदेश की ही प्रभारी हैं, इसलिए वहीं के बारे में कह सकती हैं, पर यह तर्क कम, जिम्मेदारी-जवाबदेही से पलायन ज्यादा है। आखिर उत्तर प्रदेश की प्रभारी होते हुए ही प्रियंका राजस्थान से लेकर पंजाब तक कांग्रेस का आंतरिक संकट सुलझाने में पूरी तरह सक्रिय नजर आती रही हैं। क्रिकेटर से राजनेता बने नवजोत सिंह सिद्धू की पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष पद पर ताजपोशी, जिसकी परिणति मुख्यमंत्री पद से कैप्टन अमरेंद्र सिंह की बेआबरू विदाई में भी हुई, में तो प्रियंका की ही भूमिका सबसे अहम मानी जाती है। वैसे राहुल गांधी तो किसी प्रदेश के प्रभारी भी नहीं, लोकसभा सदस्य मात्र हैं, फिर भी देश भर में कांग्रेस से जुड़े तमाम फैसलों में उन्हीं की भूमिका निर्णायक नजर आती है।
इसके अलावा भी प्रियंका का ट्रंप कार्ड बताये जा रहे इस ऐलान के संदर्भ में दो बेहद स्वाभाविक प्रश्न अनुत्तरित हैं: एक, क्या इस जुमले को जन-जन तक पहुंचा कर माहौल बना सकने की विश्वसनीयता वाला चेहरा और सामर्थ्य वाला संगठन कांग्रेस के पास है? दूसरा, क्या सिर्फ टिकटों में हिस्सेदारी से वास्तव में महिला सशक्तीकरण हो जायेगा? पहले प्रश्न की चर्चा पहले करते हैं। ज्यादा अतीत में न भी जायें तो 1989 में बोफोर्स तोप दलाली के आरोपों के शोर में हुए लोकसभा चुनावों में विश्वनाथ प्रताप सिंह की ‘राजा नहीं फकीर है, भारत की तकदीर हैÓ जैसे नारों के साथ गढ़ी गयी छवि और कुर्ते की जेब में हाथ डाल कर, सरकार बनते ही दलालों के नाम सार्वजनिक करने के वायदे ने कांग्रेस के विरोध और जनता दल की अगुवाई वाले राष्ट्रीय मोर्चा के समर्थन में माहौल बनाने में निर्णायक भूमिका निभायी थी। उसके बाद दूसरा अहम उदाहरण वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव का है, जिसमें गुजरात मॉडल के इर्दगिर्द गढ़ी गयी नरेंद्र मोदी की विकास पुरुष की छवि और अच्छे दिन आने के वायदे से उठे बवंडर में देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस जमीन से ऐसी उखड़ी कि बमुश्किल 44 सांसद जीत पाये। क्या अभी तक भाई राहुल के सहयोगी की भूमिका में सक्रिय प्रियंका की छवि ऐसी है कि उनके किसी वायदे को बदहाल कांग्रेस संगठन चुनावी हवा में बदल पाये?
इस सवाल का जवाब प्रियंका जानती हैं और उनके समर्थक भी। कुछेक राज्यों को अपवाद मान लें तो कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा लगभग चरमरा चुका है। बेशक इसमें राज्य और स्थानीय स्तर पर व्याप्त गुटबाजी की भूमिका रही है, लेकिन जिम्मेदार आलाकमान भी कम नहीं है, जिसने पार्टी को पिछले ढाई साल से असमंजस में डाल रखा है। जहां थोड़ा-बहुत संगठन सक्रिय है, वहां कांग्रेसियों को आपस में लडऩे से फुर्सत नहीं, और उत्तर प्रदेश-बिहार जैसे बड़े राज्यों में कांग्रेस की उपस्थिति प्रतीकात्मक ज्यादा रह गयी है। ऐसे में गेम चेंजर बताये जाने वाले जुमलों-शिगूफों का कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं रह जाता। हां, अगर कांग्रेस ऐसी ही घोषणा पंजाब और उत्तराखंड जैसे राज्यों के लिए करती, जहां वह सत्ता की दावेदार तो है, तब उसे कम से कम वैचारिक ईमानदारी अवश्य माना जाता। उत्तर प्रदेश में लंबे समय से चौथे नंबर पर चल रही कांग्रेस की दावेदारी दर्जन-दो दर्जन से ज्यादा सीटों पर नजर नहीं आती। ऐसे में 403 सदस्यीय विधानसभा में हार की संभावना वाली सीटों पर 40 क्या, 50 प्रतिशत टिकट भी कांग्रेस महिलाओं को दे दे तो उससे राजनीति का चरित्र नहीं बदलने वाला। बेशक लोकसभा-विधानसभा में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण का मुद्दा पुराना है। राज्यसभा में इस बाबत विधेयक भी पारित हो चुका है। सामाजिक न्याय के स्वयंभू पैरोकार दल-नेता तो अपने-अपने तर्कों के सहारे इसका विरोध करते रहे हैं, लेकिन दोनों बड़े राजनीतिक दल कांग्रेस और भाजपा ऐसे आरक्षण के प्रति प्रतिबद्धता जताते रहे हैं। फिर भी विधेयक को लोकसभा में आज तक पारित नहीं करवाया जा सका, तो कहीं न कहीं प्रतिबद्धता पर सवालिया निशान लगेंगे ही।
वैसे अगर नीयत साफ हो तो लोकसभा-विधानसभा चुनाव में महिलाओं को टिकट देने के लिए किसी कानून की बाध्यता की जरूरत नहीं है। जिन दलों-नेताओं की ऐसी ईमानदार प्रतिबद्धता है, वे ऐसा कर भी रहे हैं। हां, यह अवश्य है कि इस मामले में क्षेत्रीय दल, राष्ट्रीय दलों के मुकाबले ज्यादा ईमानदार और प्रतिबद्धता की कसौटी पर खरा उतरने वाले साबित हुए हैं। ओडिशा में बीजू जनता दल और पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने बिना जुमलों-शिगूफों के ही महिलाओं को एक-तिहाई से भी ज्यादा टिकट चुनाव में दिये, और वे जीती भीं। ज्यादा अच्छी बात यह है कि ओडिशा और पश्चिम बंगाल में महिलाओं को टिकट छलावा भर नहीं है और राजनेताओं के परिवारों से बाहर आम महिलाओं को भी अवसर मिला है। यह तथ्य इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि आरक्षण की आड़ में अक्सर राजनेता अपने परिवार की महिलाओं को ही आगे बढ़ाते हैं और उनकी आड़ में सत्ता के सूत्र अपने ही हाथों में केंद्रित रखते हैं। जाहिर है, ऐसे छद्म प्रतिनिधित्व से महिला सशक्तीकरण तो नहीं होता, उलटे लोकतंत्र कमजोर अवश्य होता है। तृणमूल कांग्रेस और बीजू जनता दल को अपवाद मान लें तो अन्य राजनीतिक दलों में महिलाओं को प्रतिनिधित्व परिवारवाद को प्रश्रय ही ज्यादा साबित हुआ है। बिहार में राबड़ी देवी का मुख्यमंत्री बनना ही इसका एकमात्र उदाहरण नहीं है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में अपने ही लाल-लालियों को राजनीति में आगे बढ़ाने के शर्मसार करने वाले ऐसे उदाहरणों की फेहरिस्त बहुत लंबी बन सकती है।
वैसे अहम स्वाभाविक सवाल यह भी है कि क्या प्रतीकात्मक राजनीतिक प्रतिनिधित्व से जमीनी हकीकत बदलती है? इंदिरा गांधी लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहीं। तब तो भारत में महिलाओं का सशक्तीकरण दशकों पहले ही हो जाना चाहिए था। मायावती देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की एक से अधिक बार मुख्यमंत्री रहीं, तब तो उन्हें महिला सशक्तीकरण की मिसाल बन जाना चाहिए था। अगर राजनीति या कहें कि सत्ता राजनीति में प्रतिनिधित्व ही हर मर्ज का इलाज है, तब तो कमोबेश हर वर्ग के प्रतिनिधि को उसकी उसी पहचान के आधार पर सभी प्रमुख पद अक्सर मिल जाने से आजादी के सात दशकों में देश के सभी वर्गों का सशक्तीकरण हो जाना चाहिए था, पर ऐसा हुआ है? अगर, हां, तब फिर आरक्षण और प्रतिनिधित्व की चुनावी लॉलीपॉप हर चुनाव में नयी पैकिंग में क्यों दिखायी जाती है? दरअसल यह सब चुनावी तिकड़में हैं मतदाताओं को भरमाने की। किसी भी वर्ग का सशक्तीकरण होता है, उसे बिना भेदभाव शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, सम्मान, सुरक्षा और जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढऩे के अवसर सुनिश्चित करने से, जो किसी भी निर्वाचित सरकार का संवैधानिक दायित्व भी होता है, पर वे अक्सर प्रतीकात्मक पहल और घोषणाएं कर अपनी वास्तविक जिम्मेदारी-जवाबदेही से मुंह चुराती रही हैं।
ऐतिहासिक चुनावी पराभव के बाद अब आंतरिक असंतोष का दबाव झेल रही कांग्रेस के शिगूफे महिलाओं को टिकट के लॉलीपॉप पर ही समाप्त नहीं होते। एक नवंबर से शुरू हो रहे सदस्यता अभियान में कांग्रेस का सदस्य बनने के लिए जो शर्तें रखी गयी हैं, वे भी व्यावहारिकता से कोसों दूर दिखावटी आदर्शवाद हैं। मसलन, शराब समेत किसी भी नशीले पदार्थ का सेवन न करना, प्रामाणिक खादी पहनना, लैंड सीलिंग एक्ट से ज्यादा भूमि का मालिक न होना, जाति-धर्म के आधार पर भेदभाव न करना आदि। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी मद्य निषेध के पैरोकार थे। इसीलिए भारत के संविधान में भी मद्य निषेध को शामिल किया गया, लेकिन आजाद भारत की सरकारों ने वास्तव में तो अधिक राजस्व के लालच में शराब निर्माण-बिक्री, नतीजतन उसके सेवन को ही बढ़ावा दिया। यह भी गोपनीय तथ्य नहीं है कि कमोबेश सभी दलों के अनेक नेता-कार्यकर्ता निस्संकोच शराब का सेवन ही नहीं करते, कारोबार से भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं। इसीलिए कांग्रेस की सदस्यता की ऐसी शर्तें व्यावहारिक आदर्श के बजाय अपना दामन दूसरों से साफ दिखाने का शिगूफा नजर आती हैं, और शिगूफों की राजनीति का अंजाम किसी से छिपा नहीं है। देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस अभी भी समझने को तैयार नहीं दिखती कि स्पष्ट वैचारिक प्रतिबद्धता ही उसे प्रासंगिक बनायेगी, जुमले-शिगूफे नहीं।

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